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जाने अन्तर सपोर्टिव सुपरविजन और निरीक्षण में

” सपोर्टिव सुपरविजन और निरीक्षण “

सपोर्टिव सुपरविजन और निरीक्षण मेरी समझ में दो ध्रुव जैसे हैं । हमें तो शुरू से यही लगा कि यह ऑनसाइट शैक्षिक सपोर्ट एवम हैंडहोल्डिंग है , शैक्षणिक गतिविधियों का उत्कृष्ट प्रस्तुतीकरण है , कक्षा कक्ष का मनमोहक रूपान्तरण है । आधारशिला , ध्यानाकर्षण , संदर्शिका का अंगीकृत हो जाना , दीक्षा( DIKSHA ) का जनमुहिम बन जाना है सहयोगात्मक पर्यवेक्षण । यह एक ऐसा डेमोंस्ट्रेशन है , जिसमें ऊर्जा का संचरण है , सूक्ष्म अंतर्दृष्टि है , अवलोकन है । यदि हम ‘ कर के ‘ नहीं दिखा पाये , लोगों के मन को झंकृत नहीं कर पाये , उनको तथ्यों की अनुभूति नहीं करा पाये , सकारात्मक वातावरण का सृजन नहीं कर पाये , बच्चों के मन में अपनी अमिट छाप नहीं छोड़ पाये तो फिर कैसा सहयोगात्मक पर्यवेक्षण …..!

आपको जब अगली बार बच्चे देखें और , वो चहक और कौतूहल का भाव उनके चेहरे पर नहीं आया , आंखों में वो चमक नहीं आयी , तो फिर कैसा सहयोगात्मक पर्यवेक्षण । फिर , किसी रजिस्टर में कुछ लाइन्स लिख कर क्या दे पायेंगे …. कितने प्रशिक्षण , मॉड्यूल्स , निर्देश , ऑडियो विजुअल शैक्षणिक सामग्री , हैंडबुक तो पहल से ही मिली हैं , तकनीकी ने तो इसके आयाम भी असीमित कर दिये हैं … ।

शैक्षणिक सामग्री पहुँच गयी या उसका प्रयोग हुआ भी , क्या जो परिणाम चाहिये थे , वो हासिल हुये भी ! हम कितने बच्चों के चेहरे पर मुस्कान दे पाये , कितने माँ – बाप के सपनों को उड़ान भरने का हौसला दे पाये । ‘अवसर की समता ‘ की राह में क्या कुछ मील भी चल पाये । हमारे बच्चों के माँ – बाप से भावनात्मक रिश्ता जोड़ पाना है सहयोगात्मक पर्यवेक्षण , उनमें विश्वास की आस जगा पाना है सहयोगात्मक पर्यवेक्षण । ये इतना छोटा और आसान रस्ता नहीं सोचा गया था , जो कुछ घण्टे , कुछ निर्धारित संख्यात्मक लक्ष्य में सिमट के रह जाये । ये सफर इतना सुगम भी नहीं था और महामारी के कारण तो मुश्किलें बढ़ी ही हैं …..

सहयोगात्मक पर्यवेक्षण one way traffic नहीं है । यह शिक्षण – प्रशिक्षण की उत्कृष्ट पद्धतियों एवम विचारों का आदान – प्रदान है । एक ही विषय या टॉपिक को पढ़ाने , प्रस्तुतीकरण के अनेक , अनन्य तरीके सम्भव हैं और सभी प्रभावी भी हो सकते हैं । हम इसका कोई निश्चित कैनवास बना भी नहीं सकते हैं ….।
इस बिखरे अनमोल ख़ज़ाने को ढूंढ कर निरन्तर प्रकाशित और प्रसारित करना है सहयोगात्मक पर्यवेक्षण । समस्याओं , अवरोधों के सामान्यीकरण से ऊपर उठ कर नयी राह बनाना है सहयोगात्मक पर्यवेक्षण । मिशन का पथ प्रदर्शक बनना , चुनौतियों से पार पाते हुए सफलता की नयी इबारत लिखना है सहयोगात्मक पर्यवेक्षण ।

सहयोगात्मक पर्यवेक्षण , निरीक्षण से सर्वथा पृथक है।
निरीक्षणकर्ता छिद्रान्वेषी होता है । उसका हाव – भाव ही अलग होता है । सामान्यतः उसकी दृष्टि कमियों को ढूँढने में होती है और निरीक्षित विद्यालय अथवा किसी भी परिसर के समस्त स्टॉफ का समग्र ध्यान सामान्य रूप से अपनी कमियां छिपाने या स्वयं को जस्टिफाई करने में रहता है , क्योंकि यहाँ कहीं न कहीं दण्ड का भाव विद्यमान रहता है । इसके विपरीत सहयोगात्मक पर्यवेक्षण में सकारात्मकता , नवोन्मेष , विशिष्टता की खोज , capacity building सहज भाव से समाहित रहती है ।

यहाँ यदि कमियां साझा किये जाने का , पूछने का , जानने ( dare to know ) का , अभिव्यक्ति का भाव सहज रूप से एवम स्वतः प्रस्फुटित नहीं हो रहा है , तो इसका आशय है कि आदान – प्रदान में कहीं न कहीं कुछ मिसिंग अवश्य है । पर्यवेक्षण के समय ही कमियों ( अकादमिक ) का निराकरण एवम पृच्छा का निवारण सर्वाधिक अपेक्षित बिंदु है । शैक्षणिक पद्धतियों के प्रस्तुतीकरण , आदर्श पाठ योजना के माध्यम से कक्षा – कक्ष के संचालन हेतु विद्यालय परिसर से उपयुक्त कोई जगह नहीं है ।

संक्षेप में कहें तो ‘निरीक्षणकर्ता’ कमी ढूंढने और उसके लिये दोषारोपण करने के लिए प्रयासरत रहता है, जबकि ‘ सहयोगी-पर्यवेक्षक ‘ अच्छी चीजों पर गौर करता है , उनकी प्रशंसा करता है , प्रोत्साहित करता है । उन्हें अन्य लोगों को अपनाने की सलाह देता है और किसी कमी के दृष्टिगत होने पर स्वयं उस कार्य को करके यह सिखाता है कि कैसे उसे सही ढंग से किया जा सकता है। यह सुंदर भावाभिव्यक्ति है , प्रदर्शन है , जुड़ाव है । यह वृहद दायित्व भाव है ।

हम सब …मतलब हम सभी … आपसे सीखते हैं और निरन्तर आपके अच्छे कार्यों की प्रशंसा करते हैं । आप शिक्षक हैं , आपसे बड़ा कोई ओहदा और पद नहीं । हमारे बच्चों के सपनों और उनकी मुस्कान के लिये कुछ अधिक करिये , कुछ अलग करिये ….

विश्लेषण में कुछ बातें अधूरी रह जाती हैं , आज भी रह जायेंगी । यह एक सतत प्रक्रिया और प्रवाह है ।

आपका साथी ,
आनन्द पाण्डेय
वरिष्ठ विशेषज्ञ , समग्र शिक्षा ।

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